Monday, 29 June 2015

नई मैन्यूस्मृति-1

छोटी कहानी

वे आए थे।
श्रद्धा के मारे मेरा दिमाग़ मुंदा जा रहा था।
यूं भी, हमने बचपन से ही, प्रगतिशीलता भी भक्ति में मिला-मिलाकर खाई थी।
चांद खिला हुआ था, वे खिलखिला रहे थे, मैं खील-खील हुई जा रही थी।
जड़ नींद में अलंकार का ऐसा सुंदर प्रदर्शन! मैंने ख़ुदको इसके लिए पांच अंक दिए।

खाने में क्या लेंगे ?
बस परंपरा, और क्या! ऊपर से प्रगतिशीलता का तड़का मार देना। बाक़ी जो भी नॉर्मल खाना होता है वो तो होगा ही।
वे मुंह खोलते थे तो लगता था आकाशवाणी हो रही है।
एक बार यूंही किसीने मुझसे पूछ लिया था कि आकाशवाणी क्या होती है, हमने तो कभी आकाश से कोई वाणी निकलती सुनी नहीं, बादल ज़रुर बीच-बीच में भरभराते रहते हैं।
मैं हकबकाई। नहीं अचकचाई ठीक रहेगा। मैं संभल गई। पहले तो मैंने सोचा उसकी बातों का उल्टा-सीधा मतलब निकाल कर लोगों को बहका दूं। पर लोग वहां थे ही नहीं। मैंने उसे ऐसे घूरा जैसे कोई अक़्लमंद किसी मूर्ख को घूरता है। वो था भी मूर्ख ; उसने इसे सच समझा और भाग गया।

हम लोग सदियों से माहौल बनाए हुए हैं।

वे परंपरा, प्रगतिशीलता, सभ्यता, देशप्रेम, संस्कार, प्रतिष्ठा...आदि की खिचड़ी करके खा रहे थे। खिचड़ी उनके पेट के लिए मुफ़ीद है। बड़े-बड़े हाथों को सानकर खाते हुए वे कितने दर्शनीय लग रहे थे। दर्शन में मेरा काफ़ी इंट्रेस्ट रहा है।

क्या लिखूं? वे बोले।
कुछ भी लिख दीजिए। फ़ोटोकॉपी ही दे दीजिए। किसीके भी लिखे की दे दीजिए। साइन मार दीजिए। घसीटा ही मार दीजिए। आपका तो हाथ भी लग जाए तो जगत मिथ्या हो उठता है। मैं तो चाहती हूं आप मेरा अस्तित्व ही मिटा दें ; अपना आदमी कुछ भी करे, सब अच्छा लगता है।

हम एक-दूसरे को ख़ूब चढ़ाते थे, प्रोत्साहन देते थे।
वक़्त गल्पकथाओं की तरह बीत रहा था।

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सुबह उठी तो मैं सती हो चुकी थी।

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वे आराम से बाहर निकले और पड़ोस का दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से एक सुंदर स्त्री बाहर निकली।

आपके पड़ोस में कोई रहता नहीं क्या ? कबसे दरवाज़ा खटखटा रहा हूं, कोई आता ही नहीं। क्या थोड़ी देर यहां सुस्ता सकता हूं ?



-संजय ग्रोवर

29-06-2015


Wednesday, 3 June 2015

पुरस्कार की राय

पुरस्कार लेनेवाले की कोई राय हो सकती है, देनेवाले की हो सकती है, लेन-देन और तमाशा देखनेवालों की राय हो सकती है, मगर पुरस्कार ! उससे कौन पूछता है तुम किसके पास जाना चाहते हो और किसके पास नहीं ?

पुरस्कार की हालत कुछ-कुछ वैसी ही होती है जैसी तथाकथित भावुक समाजों में कन्याओं की होती रही/होगी। लड़केवाले देखने आते रहते हैं/होंगे और कन्या? वह दिखाई जाती रहती है/होगी। 5 लड़के गुज़र गए, 10 गुज़र गए, 50 गुज़र गए मगर बात कहीं बन न सकी। इधर कन्या की उमर गुज़र रही है। एक दिन ऐसा आता है अब जो भी लड़का, जैसा लड़का आता है, ज़रा भी राज़ी होता है, बस फटाफट कन्या को उसीको दे दो। इधर दिखते-दिखते कन्या की भी स्थिति पुरस्कार जैसी हो जाती है/होगी कि लगता है/होगा कि आज इसका वरण न किया तो कल पता नहीं यह भी मिलेगा कि न मिलेगा। बस फिर क्या होता है/होगा.....शहनाईयां बजने लगतीं हैं/होंगी, लोग नाचने लगते हैं/होंगे, ख़ुशियां मनाई जाने लगतीं हैं/होंगी......कन्या अगर तथाकथित तौर पर सुंदर और तथाकथित पढ़ी-लिखी हो तो वर उसे ट्रॉफ़ी की तरह मित्रों/परिचितों को दिखाता है/होगा कि देखो मुझे तो यह मिली है......

हे पुरस्कार! मेरी पूरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है, संकट की इस घड़ी मे, उस घड़ी में और हर घड़ी में मैं तुम्हारे साथ हूं क्योंकि जानता हूं कि तुम हमेशा, अपनी मरज़ी के बिना इस हाथ से उस हाथ में जाते रहोगे।

प्लीज़ टेक केयर....इफ़ पॉसीबिल......


-संजय ग्रोवर
19-11-2013
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