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Wednesday, 3 June 2015

पुरस्कार की राय

पुरस्कार लेनेवाले की कोई राय हो सकती है, देनेवाले की हो सकती है, लेन-देन और तमाशा देखनेवालों की राय हो सकती है, मगर पुरस्कार ! उससे कौन पूछता है तुम किसके पास जाना चाहते हो और किसके पास नहीं ?

पुरस्कार की हालत कुछ-कुछ वैसी ही होती है जैसी तथाकथित भावुक समाजों में कन्याओं की होती रही/होगी। लड़केवाले देखने आते रहते हैं/होंगे और कन्या? वह दिखाई जाती रहती है/होगी। 5 लड़के गुज़र गए, 10 गुज़र गए, 50 गुज़र गए मगर बात कहीं बन न सकी। इधर कन्या की उमर गुज़र रही है। एक दिन ऐसा आता है अब जो भी लड़का, जैसा लड़का आता है, ज़रा भी राज़ी होता है, बस फटाफट कन्या को उसीको दे दो। इधर दिखते-दिखते कन्या की भी स्थिति पुरस्कार जैसी हो जाती है/होगी कि लगता है/होगा कि आज इसका वरण न किया तो कल पता नहीं यह भी मिलेगा कि न मिलेगा। बस फिर क्या होता है/होगा.....शहनाईयां बजने लगतीं हैं/होंगी, लोग नाचने लगते हैं/होंगे, ख़ुशियां मनाई जाने लगतीं हैं/होंगी......कन्या अगर तथाकथित तौर पर सुंदर और तथाकथित पढ़ी-लिखी हो तो वर उसे ट्रॉफ़ी की तरह मित्रों/परिचितों को दिखाता है/होगा कि देखो मुझे तो यह मिली है......

हे पुरस्कार! मेरी पूरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है, संकट की इस घड़ी मे, उस घड़ी में और हर घड़ी में मैं तुम्हारे साथ हूं क्योंकि जानता हूं कि तुम हमेशा, अपनी मरज़ी के बिना इस हाथ से उस हाथ में जाते रहोगे।

प्लीज़ टेक केयर....इफ़ पॉसीबिल......


-संजय ग्रोवर
19-11-2013
(on FaceBook)

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