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Friday, 7 October 2016

खामख़्वाह सीधा रास्ता देखा......

पैरोडी



तेरी आंखों में हमने क्या देखा
डर गए, ऐसा माफ़िया देखा


हमने इतिहास जाके क्या देखा
काम कम, नाम ही ज़्यादा देखा


अपनी तहज़ीब तो थी पिछली गली
खामख़्वाह सीधा रास्ता देखा


अपने पैसे लगे चुराए से
ख़ुदपे आयकर को जब छपा देखा


हाय! अंदाज़ तेरे बिकने का
तू ही दूसरों को डांटता देखा


भूले गिरगिट के रंग बदलने को
पंद्रह मिनटों में क्या से क्या देखा 


फिर न आया ख़्याल तोतों का
जबसे स्कूल/मंदिर का रास्ता देखा


-संजय ग्रोवर
(क्षमा महान है/शायर और भी महान है)
07-10-2016

Tuesday, 22 March 2016

कि ये जो लोग हैं, ये हैं ही ऐसे...

ग़ज़ल

हुआ क्या है, हुआ कुछ भी नहीं है
नया क्या है, नया कुछ भी नहीं है

अदाकारी ही उनकी ज़िंदगी है
जिया क्या है, जिया कुछ भी नहीं है

रवायत चढ़के बैठी है मग़ज़ में
पिया क्या है, पिया कुछ भी नहीं है

लिया है जन्म जबसे, ले रहे हैं
दिया क्या है, दिया कुछ भी नहीं है

कि ये जो लोग हैं, ये हैं ही ऐसे
किया क्या है, किया कुछ भी नहीं है

-संजय ग्रोवर
22-03-2016


Wednesday, 3 June 2015

पुरस्कार की राय

पुरस्कार लेनेवाले की कोई राय हो सकती है, देनेवाले की हो सकती है, लेन-देन और तमाशा देखनेवालों की राय हो सकती है, मगर पुरस्कार ! उससे कौन पूछता है तुम किसके पास जाना चाहते हो और किसके पास नहीं ?

पुरस्कार की हालत कुछ-कुछ वैसी ही होती है जैसी तथाकथित भावुक समाजों में कन्याओं की होती रही/होगी। लड़केवाले देखने आते रहते हैं/होंगे और कन्या? वह दिखाई जाती रहती है/होगी। 5 लड़के गुज़र गए, 10 गुज़र गए, 50 गुज़र गए मगर बात कहीं बन न सकी। इधर कन्या की उमर गुज़र रही है। एक दिन ऐसा आता है अब जो भी लड़का, जैसा लड़का आता है, ज़रा भी राज़ी होता है, बस फटाफट कन्या को उसीको दे दो। इधर दिखते-दिखते कन्या की भी स्थिति पुरस्कार जैसी हो जाती है/होगी कि लगता है/होगा कि आज इसका वरण न किया तो कल पता नहीं यह भी मिलेगा कि न मिलेगा। बस फिर क्या होता है/होगा.....शहनाईयां बजने लगतीं हैं/होंगी, लोग नाचने लगते हैं/होंगे, ख़ुशियां मनाई जाने लगतीं हैं/होंगी......कन्या अगर तथाकथित तौर पर सुंदर और तथाकथित पढ़ी-लिखी हो तो वर उसे ट्रॉफ़ी की तरह मित्रों/परिचितों को दिखाता है/होगा कि देखो मुझे तो यह मिली है......

हे पुरस्कार! मेरी पूरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है, संकट की इस घड़ी मे, उस घड़ी में और हर घड़ी में मैं तुम्हारे साथ हूं क्योंकि जानता हूं कि तुम हमेशा, अपनी मरज़ी के बिना इस हाथ से उस हाथ में जाते रहोगे।

प्लीज़ टेक केयर....इफ़ पॉसीबिल......


-संजय ग्रोवर
19-11-2013
(on FaceBook)

Tuesday, 14 April 2015

एक पुरानी ग़ज़ल



वे सब कितने हैं महान जो क़िस्से गढ़ते हैं         
नक़ली दुश्मन से अख़बारी पन्नों पे लड़ते हैं

ऊँचे-ऊँचे दिखते हैं जो लोग फ़ासलों से
नीचे गिर कर ही अकसर वो ऊपर चढ़ते हैं

जो जहान को फूलों से नुकसान बताते हैं
उनकी नाक तले गुलशन में काँटे बढ़ते हैं

वे भी जिनसे लड़ते थे उन जैसे हो बैठे
अपनी सारी ताक़त से हम जिनसे लड़ते हैं

उन लोगों की बात न पूछो उनके क्या कहने
पत्थर जैसे मन, पर तन पर शीशे जड़ते हैं

लोग न जाने क्यूँ डरते हैं, जीते दोहरा जीवन
जैसे बढ़िया जिल्द में घटिया पुस्तक पढ़ते हैं



                                        -संजय ग्रोवर

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