कुछ रचनाएं आप शुरुआती दौर में, कभी दूसरों के प्रभाव या दबाव में तो कभी बस यूंही, लिख डालते हैं और भूल जाते हैं, मगर गानेवालों और सुननेवालों को वही पसंद आ जातीं हैं......
ग़ज़ल
आज मुझे ज़ार-ज़ार आंख-आंख रोना है
सदियों से गलियों में जमा लहू धोना है
रिश्तों के मोती सब बिखर गए दूर-दूर
प्यार का तार कोई इनमें पिरोना है
इंसां बनके आए थे, इंसां बनके जाएंगे
हिंदू या मुसलमान होना भी कोई होना है
प्यार बनके जब चाहो मेरे घर चले आओ
आंखों में आंगन है दिल मेरा बिछौना है
माना तू हक़ीकत है और ख़ूबसूरत है
मेरे ख़्वाबोंवाला मुखड़ा भी सलोना है
-संजय ग्रोवर