Showing posts with label ग़ज़ल. Show all posts
Showing posts with label ग़ज़ल. Show all posts

Monday, 12 August 2019

तेरे घर का पता-सा...


ग़ज़ल

कोई पत्ता हरा-सा ढूंढ लिया
तेरे घर का पता-सा ढूंढ लिया

जब भी रफ़्तार में ख़ुद को खोया
थोड़ा रुकके, ज़रा-सा ढूंढ लिया

उसमें दिन-रात उड़ता रहता हूं
जो ख़्याल आसमां-सा ढूंढ लिया

शहर में आके हमको ऐसा लगा
दश्त का रास्ता-सा ढूंढ लिया

तेरी आंखों में ख़ुदको खोया मगर
शख़्स इक लापता-सा ढूंढ लिया

पत्थरों की अजीब दुनिया ने
मुझमें इक आईना-सा ढूंढ लिया

उम्र-भर की ठगी-सी आंखों ने
बादलों में धुंआ-सा ढूंढ लिया

भीड़ के धोखे में आकर अकसर
बुत ने ख़ुदमें ख़ुदा-सा ढूंढ लिया

-संजय ग्रोवर

Tuesday, 16 April 2019

इक रोशन लम्हे की खातिर

ग़ज़ल


बाहर से ठहरा दिखता हूँ भीतर हरदम चलता हूँ
इक रोशन लम्हे की खातिर सदियों-सदियों जलता हूँ

आवाज़ों में ढूँढोगे तो मुझको कभी न पाओगे
सन्नाटे को सुन पाओ तो मैं हर घर में मिलता हूँ

दौरे-नफरत के साए में प्यार करें वो लोग भी हैं
जिनके बीच में जाकर लगता मैं आकाश से उतरा हूँ

कितने दिलों ने अपने आँसू मेरी आँख में डाल दिए
कोई आँसू ठहर न जाए यूँ मैं खुल कर रोता हूँ

-संजय ग्रोवर,

Monday, 18 February 2019

फिर आदमी बन जा

ग़ज़ल 

ज़िंदगी की जुस्तजू में ज़िंदगी बन जा
ढूंढ मत अब रोशनी, ख़ुद रोशनी बन जा

रोशनी में रोशनी का क्या सबब, ऐ दोस्त!
जब अंधेरी रात आए, चांदनी बन जा

गर तक़ल्लुफ़ झूठ हैं तो छोड़ दे इनको
मैंने ये थोड़ी कहा, बेहूदगी बन जा

हर तरफ़ चौराहों पे भटका हुआ इंसान-
उसको अपनी-सी लगे, तू वो गली बन जा

कुंओं में जीते हुए सदियां गई ऐ दोस्त
क़ैद से बाहर निकल, फिर आदमी बन जा

गर शराफ़त में नहीं पानी का कोई ढंग
बादलों की तर्ज़ पे आवारगी बन जा

-संजय ग्रोवर

Saturday, 2 February 2019

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था


बह गया मैं भावनाओं में कोई ऐसा मिला
फिर महक आई हवाओं में कोई ऐसा मिला

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था
दर्द मीठा-सा दवाओं में कोई ऐसा मिला

खो गए थे मेरे जो वो सारे सुर वापस मिले
एक सुर उसकी सदाओं में कोई ऐसा मिला

पाके खोना खोके पाना खेल जैसा हो गया
लुत्फ़ जीने की सज़ाओं में कोई ऐसा मिला

-संजय ग्रोवर

(एक पुरानी ग़ज़ल)



Thursday, 25 January 2018

यूं अनोखा-सा मोड़ देता हूं...

ग़ज़ल

ताज़गी-ए-क़लाम को अकसर
यूं अनोखा-सा मोड़ देता हूं
जब किसी दिल से बात करनी हो
अपनी आंखों पे छोड़ देता हूं


सिर्फ़ रहता नहीं सतह तक मैं
सदा गहराईयों में जाता हूं
जिनमें दीमक ने घर बनाया हो
वो जड़ें, जड़ से तोड़ देता हूं
08-07-1994


कैसी ख़ुश्क़ी रुखों पे छायी है
लोग भी हो गए बुतों जैसे
मैं भी, ज़िंदा लगूं, इसी ख़ातिर
सुख को चेहरे पे ओढ़ लेता हूं
23-04-1996

-संजय ग्रोवर

Tuesday, 22 March 2016

कि ये जो लोग हैं, ये हैं ही ऐसे...

ग़ज़ल

हुआ क्या है, हुआ कुछ भी नहीं है
नया क्या है, नया कुछ भी नहीं है

अदाकारी ही उनकी ज़िंदगी है
जिया क्या है, जिया कुछ भी नहीं है

रवायत चढ़के बैठी है मग़ज़ में
पिया क्या है, पिया कुछ भी नहीं है

लिया है जन्म जबसे, ले रहे हैं
दिया क्या है, दिया कुछ भी नहीं है

कि ये जो लोग हैं, ये हैं ही ऐसे
किया क्या है, किया कुछ भी नहीं है

-संजय ग्रोवर
22-03-2016


Wednesday, 30 December 2015

हिंदू या मुसलमान होना भी कोई होना है

कुछ रचनाएं आप शुरुआती दौर में, कभी दूसरों के प्रभाव या दबाव में तो कभी बस यूंही, लिख डालते हैं और भूल जाते हैं, मगर गानेवालों और सुननेवालों को वही पसंद आ जातीं हैं...... 




ग़ज़ल

आज मुझे ज़ार-ज़ार आंख-आंख रोना है
सदियों से गलियों में जमा लहू धोना है 

रिश्तों के मोती सब बिखर गए दूर-दूर
प्यार का तार कोई इनमें पिरोना है

इंसां बनके आए थे, इंसां बनके जाएंगे
हिंदू या मुसलमान होना भी कोई होना है

प्यार बनके जब चाहो मेरे घर चले आओ
आंखों में आंगन है दिल मेरा बिछौना है

माना तू हक़ीकत है और ख़ूबसूरत है
मेरे ख़्वाबोंवाला मुखड़ा भी सलोना है
 

-संजय ग्रोवर



अंग्रेज़ी के ब्लॉग

हास्य व्यंग्य ब्लॉग

www.hamarivani.com