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Thursday, 25 January 2018

यूं अनोखा-सा मोड़ देता हूं...

ग़ज़ल

ताज़गी-ए-क़लाम को अकसर
यूं अनोखा-सा मोड़ देता हूं
जब किसी दिल से बात करनी हो
अपनी आंखों पे छोड़ देता हूं


सिर्फ़ रहता नहीं सतह तक मैं
सदा गहराईयों में जाता हूं
जिनमें दीमक ने घर बनाया हो
वो जड़ें, जड़ से तोड़ देता हूं
08-07-1994


कैसी ख़ुश्क़ी रुखों पे छायी है
लोग भी हो गए बुतों जैसे
मैं भी, ज़िंदा लगूं, इसी ख़ातिर
सुख को चेहरे पे ओढ़ लेता हूं
23-04-1996

-संजय ग्रोवर

Wednesday, 30 December 2015

हिंदू या मुसलमान होना भी कोई होना है

कुछ रचनाएं आप शुरुआती दौर में, कभी दूसरों के प्रभाव या दबाव में तो कभी बस यूंही, लिख डालते हैं और भूल जाते हैं, मगर गानेवालों और सुननेवालों को वही पसंद आ जातीं हैं...... 




ग़ज़ल

आज मुझे ज़ार-ज़ार आंख-आंख रोना है
सदियों से गलियों में जमा लहू धोना है 

रिश्तों के मोती सब बिखर गए दूर-दूर
प्यार का तार कोई इनमें पिरोना है

इंसां बनके आए थे, इंसां बनके जाएंगे
हिंदू या मुसलमान होना भी कोई होना है

प्यार बनके जब चाहो मेरे घर चले आओ
आंखों में आंगन है दिल मेरा बिछौना है

माना तू हक़ीकत है और ख़ूबसूरत है
मेरे ख़्वाबोंवाला मुखड़ा भी सलोना है
 

-संजय ग्रोवर



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