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Monday, 18 February 2019

फिर आदमी बन जा

ग़ज़ल 

ज़िंदगी की जुस्तजू में ज़िंदगी बन जा
ढूंढ मत अब रोशनी, ख़ुद रोशनी बन जा

रोशनी में रोशनी का क्या सबब, ऐ दोस्त!
जब अंधेरी रात आए, चांदनी बन जा

गर तक़ल्लुफ़ झूठ हैं तो छोड़ दे इनको
मैंने ये थोड़ी कहा, बेहूदगी बन जा

हर तरफ़ चौराहों पे भटका हुआ इंसान-
उसको अपनी-सी लगे, तू वो गली बन जा

कुंओं में जीते हुए सदियां गई ऐ दोस्त
क़ैद से बाहर निकल, फिर आदमी बन जा

गर शराफ़त में नहीं पानी का कोई ढंग
बादलों की तर्ज़ पे आवारगी बन जा

-संजय ग्रोवर

Friday, 25 December 2015

डूबता हूं न पार उतरता हूं

बहुत पुरानी एक ग़ज़ल



















डूबता हूं न पार उतरता हूं
आप पर एतबार करता हूं

ग़ैर की बेरुख़ी क़बूल मुझे
दोस्तों की दया से डरता हूं

जब भी लगती है ज़िंदगी बेरंग
यूंही ग़ज़लों में रंग भरता हूं

अपना ही सामना नहीं होता
जब भी ख़ुदसे सवाल करता हूं

करके सब जोड़-भाग वो बोला
मैं तो बस तुमसे प्यार करता हूं

-संजय ग्रोवर

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