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Thursday, 25 January 2018

यूं अनोखा-सा मोड़ देता हूं...

ग़ज़ल

ताज़गी-ए-क़लाम को अकसर
यूं अनोखा-सा मोड़ देता हूं
जब किसी दिल से बात करनी हो
अपनी आंखों पे छोड़ देता हूं


सिर्फ़ रहता नहीं सतह तक मैं
सदा गहराईयों में जाता हूं
जिनमें दीमक ने घर बनाया हो
वो जड़ें, जड़ से तोड़ देता हूं
08-07-1994


कैसी ख़ुश्क़ी रुखों पे छायी है
लोग भी हो गए बुतों जैसे
मैं भी, ज़िंदा लगूं, इसी ख़ातिर
सुख को चेहरे पे ओढ़ लेता हूं
23-04-1996

-संजय ग्रोवर

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