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Tuesday, 16 April 2019

इक रोशन लम्हे की खातिर

ग़ज़ल


बाहर से ठहरा दिखता हूँ भीतर हरदम चलता हूँ
इक रोशन लम्हे की खातिर सदियों-सदियों जलता हूँ

आवाज़ों में ढूँढोगे तो मुझको कभी न पाओगे
सन्नाटे को सुन पाओ तो मैं हर घर में मिलता हूँ

दौरे-नफरत के साए में प्यार करें वो लोग भी हैं
जिनके बीच में जाकर लगता मैं आकाश से उतरा हूँ

कितने दिलों ने अपने आँसू मेरी आँख में डाल दिए
कोई आँसू ठहर न जाए यूँ मैं खुल कर रोता हूँ

-संजय ग्रोवर,

Saturday, 2 February 2019

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था


बह गया मैं भावनाओं में कोई ऐसा मिला
फिर महक आई हवाओं में कोई ऐसा मिला

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था
दर्द मीठा-सा दवाओं में कोई ऐसा मिला

खो गए थे मेरे जो वो सारे सुर वापस मिले
एक सुर उसकी सदाओं में कोई ऐसा मिला

पाके खोना खोके पाना खेल जैसा हो गया
लुत्फ़ जीने की सज़ाओं में कोई ऐसा मिला

-संजय ग्रोवर

(एक पुरानी ग़ज़ल)



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