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Monday, 17 February 2020

आ साक़िया, मिला

ग़ज़ल

अपनी तरह का जब भी उन्हें माफ़िया मिला
बोले उछलके देखो कैसा काफ़िया मिला

फ़िर नस्ल-वर्ण-दल्ले हैं इंसान पे काबिज़
यूँ जंगली शहर में मुझे हाशिया मिला

मुझतक कब उनके शहर में आती थी ढंग से डाक
यां ख़बर तक न मिल सकी, वां डाकिया मिला

जब मेरे जामे-मय में मिलाया सभी ने ज़ह्र
तो तू भी पीछे क्यों रहे, आ साक़िया, मिला

मुझको जहाँ पे सच दिखा, हिम्मत दिखी, ग़ज़ब-
उनको वहीं पे फ़ोबिया.....सिज़ोफ्रीनिया मिला

उनको जहाँ पे सभ्यता औ’ संस्कृति दिखी
मुझको वहीं पैरेनॉइका...सीज़ोफ्रीनिया मिला

-संजय ग्रोवर

Monday, 12 August 2019

तेरे घर का पता-सा...


ग़ज़ल

कोई पत्ता हरा-सा ढूंढ लिया
तेरे घर का पता-सा ढूंढ लिया

जब भी रफ़्तार में ख़ुद को खोया
थोड़ा रुकके, ज़रा-सा ढूंढ लिया

उसमें दिन-रात उड़ता रहता हूं
जो ख़्याल आसमां-सा ढूंढ लिया

शहर में आके हमको ऐसा लगा
दश्त का रास्ता-सा ढूंढ लिया

तेरी आंखों में ख़ुदको खोया मगर
शख़्स इक लापता-सा ढूंढ लिया

पत्थरों की अजीब दुनिया ने
मुझमें इक आईना-सा ढूंढ लिया

उम्र-भर की ठगी-सी आंखों ने
बादलों में धुंआ-सा ढूंढ लिया

भीड़ के धोखे में आकर अकसर
बुत ने ख़ुदमें ख़ुदा-सा ढूंढ लिया

-संजय ग्रोवर

Tuesday, 16 April 2019

इक रोशन लम्हे की खातिर

ग़ज़ल


बाहर से ठहरा दिखता हूँ भीतर हरदम चलता हूँ
इक रोशन लम्हे की खातिर सदियों-सदियों जलता हूँ

आवाज़ों में ढूँढोगे तो मुझको कभी न पाओगे
सन्नाटे को सुन पाओ तो मैं हर घर में मिलता हूँ

दौरे-नफरत के साए में प्यार करें वो लोग भी हैं
जिनके बीच में जाकर लगता मैं आकाश से उतरा हूँ

कितने दिलों ने अपने आँसू मेरी आँख में डाल दिए
कोई आँसू ठहर न जाए यूँ मैं खुल कर रोता हूँ

-संजय ग्रोवर,

Monday, 18 February 2019

फिर आदमी बन जा

ग़ज़ल 

ज़िंदगी की जुस्तजू में ज़िंदगी बन जा
ढूंढ मत अब रोशनी, ख़ुद रोशनी बन जा

रोशनी में रोशनी का क्या सबब, ऐ दोस्त!
जब अंधेरी रात आए, चांदनी बन जा

गर तक़ल्लुफ़ झूठ हैं तो छोड़ दे इनको
मैंने ये थोड़ी कहा, बेहूदगी बन जा

हर तरफ़ चौराहों पे भटका हुआ इंसान-
उसको अपनी-सी लगे, तू वो गली बन जा

कुंओं में जीते हुए सदियां गई ऐ दोस्त
क़ैद से बाहर निकल, फिर आदमी बन जा

गर शराफ़त में नहीं पानी का कोई ढंग
बादलों की तर्ज़ पे आवारगी बन जा

-संजय ग्रोवर

Saturday, 2 February 2019

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था


बह गया मैं भावनाओं में कोई ऐसा मिला
फिर महक आई हवाओं में कोई ऐसा मिला

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था
दर्द मीठा-सा दवाओं में कोई ऐसा मिला

खो गए थे मेरे जो वो सारे सुर वापस मिले
एक सुर उसकी सदाओं में कोई ऐसा मिला

पाके खोना खोके पाना खेल जैसा हो गया
लुत्फ़ जीने की सज़ाओं में कोई ऐसा मिला

-संजय ग्रोवर

(एक पुरानी ग़ज़ल)



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